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Happy MahaShivratri

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I immensely love everything about shiv ji ,festivals of shivji ,all the vrat puja for shivji. Today being the great Mahashivratri festival, i have kept my fast and worship shiv baba.    

Maha Shivratri is the festival celebrated every year in the reverence of Lord Shiva. Shivratri means the great night of shiv ji, or the night of shiv baba. It is celebrated every year on the 13th or 14th day of Maagha or Phalguna month of the hindu calender. The festival is obseved by offering bel patra (Bilva/vilvam leaves),  bers, fruits, milk to shiv ji and observing  fast all day and chanting the Panchakshara mantra ie Om Namah Shivaya . the five holy syllables of this mantra are Na- Mah- Shi- Va- ya , that are panchakshra.

Below is the katha for mahashivratri vrat.

महाशिवरात्रि की व्रत-कथा

एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से पूछा, ‘ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?’

उत्तर में शिवजी ने पार्वती को ‘शिवरात्रि’ के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- ‘एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।

शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया।

अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।

पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।

एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना।’ शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।

कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘हे पारधी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’

शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, ‘हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मार।’

शिकारी हँसा और बोला, ‘सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।’

उत्तर में मृगी ने फिर कहा, ‘जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।’

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा।

शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,’ हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।’

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ‘मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।’

उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।

थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।

देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।’

Om Namah Shivaya

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Jap Tap Vrat : Bhakti

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तप में है बल                20120621_004

कुछ महीनो पूर्व मैं हरिद्वार गयी थी, जहाँ मुझे बहुत सुकून और राहत महसूस की, पवित्र गंगा जल में डूबकी लगाकर सूर्य देव को नमन कर मन में महसूस हुआ की शायद बरसो पुराने वक़्त के कर्मो की बुनी चादर जैसे बह गयी हो और उस जल धरा में  मेरे नए जीवन का संचार हुआ है ऐसा प्रतीत हुआ

 गंगा घाट पर बैठे दूर – दूर तक पानी ही पानी और इतना ठंडा जल शारीर के स्पर्श में आते ही सब गर्मी मानो चुरा ले गया हो और सब निराशा उड़ा ले रहा हो। सर से पैर तक तन में निर्मलता, स्वछता एवं शीतलता उत्पन्न हो गयी। 

गंगा जल का वेग बहुत ही तेज़ होता था मुझे लगा जैसे मेरे पैरो को घाट की सीडियों पर टिकाना बहुत मुश्किल होता जा रहा है ,पर मैंने तो निश्चय किया था की डुबकी लेनी है पैर से सर तक, पानी के भीतर होकर ही। और इसी दौरान शायद गंगा मैय्या को मेरी भक्ति इतनी पसंद आई की मेरे पाओ उठाकर वो चलने लगी, पर भला हो उन ज़ंजीरो का जिसकी वजह से आज मैं यहाँ बैठ कर लिख पा रही हूँ। 

 हरिद्वार में आरती देखने के  संग- संग भजन और जय कारे लगाने का अलग ही अनुभव होता है। शाम होते ही पानी में सब तरफ फूलो में सजे दीप बहुत सुन्दर लगते है , मैंने भी   दीप जलाये और हाथो से श्रद्धा के फूलो को उस पावन जल में प्रवाह किया। सच मे घाट पर बैठकर पैरो को पानी में डूबाये और उस शांत जल धारा के वेग को देखते रहना बहुत अच्छा लगता है।जगह जगह छोटी बड़ी पहाड़ियां और शिव भगवान की मूर्ति को देखते रहना और मनन करना अत्यनत सुखदाई अनुभव होता है। 

यह एहसास कुछ ही पलो का होता है, हालाँकि आपके और मेरे जीवन में ऐसे बहुत से सांसारिक एहसास होते होंगे या हो रहे होंगे, पर मैं जिस एहसास और अनुभव की बात कर  रही हूँ वो ज़िन्दगी में कुछ ही लोग पूर्ण कर पाते है। 

वो इसलिए की ज़रूरी नहीं की आप भगवन के दर्शन करना चाहेंगे तो कभी भी जा सकेंगे, क्यूंकि यह तभी मुमकिन है जब भगवन आपको दर्शन देने का बुलावा भेजे, नहीं तो इतने सालों से मेरी तीव्र इच्छा है की मैं माँ  वैष्णो देवी के दरबार जाऊं और माँ के दर्शन करू पर रूकावटे, अर्चने और कुछ निजी जीवन की समस्याए ऐसी है की मैं अब प्रतिज्ञा बद्ध हो गयीं हूँ हठ समझ लीजिये या जो कहिये, की जब मेरा विवाह संपन्न होगा मैं तभी दर्शन के लिए जाउंगी अपने जीवन साथी के साथ माँ के दरबार माँ के चरणों में। 

    यह सोचते -सोचते यह भी विचार आता है की “तप” की महिमा अंतहीन है,  क्यूंकि जिस गंग  के  जल में मुझे इतनी शान्ति और सुकून मिला, वो गंगा मैया के जल को धरती पर   लाने के लिए ऋषि  भागीरथ ने कितने वर्षो की तपस्या की जिसके पश्चात वह धरती पर आई और भगवन शिव ने उनके तेज़ वेग को सँभालने के लिए, उन्हें अपनी जटाओ में    धारण किया तब जाकर कहीं इस प्यासी धरती की प्यास भुजी, पापो का नाश हुआ और मृत जीवो और मनुष्यों को मुक्ति मिली। 

 सोचना सरल है पर निभाना बहुत कठिन, यह जप, तप एव भक्ति मामूली बातें नहीं, हर हफ्ते सोमवार, ब्रहस्पत्वार के व्रत हो या माता के नवरात्रे या एकादशी, शिवरात्रि या दुसरे विशेष व्रत, इनमे एक समय को तो ऐसा लगता है की पेट में लगी आग का क्या किया जाए, पर अन्दर से कुछ शक्ति मिलती रहती है जो व्रत को संपूर्ण करने में तन मन को नियंत्रित करती है जिससे मुझे तप की शक्ति पर विश्वास द्रढ़ हो जाता  है और यह समझने लगी हूँ की इस माया रुपी संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जो हम तप से प्राप्त ना कर सके।

Mehfil e Zindagi

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यह ज़िन्दगी की महफ़िल ….

 

अब कहाँ ….

शाम ए महफिले सजा करती है

हर तरफ बदरंग सी कोई नुमाइश लगती है

ना कहीं सुर है ना कोई साज़

हर तरफ सिने में छुपा रहा कोई राज़

 

क्यूंकि …

 

दिखावा करती यह दुनिया बरसो से चली

दिखावे के बिना अब कहाँ कोई शाम ढली

दिखावो में सिमटा हुआ हमसफ़र

दिखावटी ज़िन्दगी का छोटा सफ़र

 

इस …

 

चकाचौन्द में डूबा हुआ मन

हुआ बोझिल सा हर अन्तरंग

किसे देखे किसे बताये

की इस मन की क्या है आशाए

 

क्यूंकि

 

ना अब फुर्सत ना कोई विरासत

क्यूँ दे कोई अब अपना वक्त

किसको परवाह, कौन हो तुम

ढूँढेगा कौन हो गए अगर गुम

 

तो

 

यह महफिले ए ज़िन्दगी है जनाब

समझाना छोड़ दीजिये इसको ख्वाब

हकीकत है यही बयान कर चुके हम

इस दुनिया में नहीं हर कोई सनम

 

इसलिए

 

रिश्ते नाते वफ़ा या मोहब्बत

ना बनो इनमे किसी के भी भक्त

लगाओ मन प्रभु के चरणों में

नहीं रहा कुछ बाकी अब  झूठी कसमो में

महा मृत्युंजय

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शायद यह भगवान  की मर्ज़ी है की जिस बात की शुरुआत मैंने अंग्रेजी भाषा में की थी वह इन्टरनेट कनेक्शन की खामी के वजह से गायब  हो  गया और बदले में जो एक सोच मेरे ज़हन में उठी थी ,की उस ब्लॉग को  क्यूँ न मैं हिंदी में प्रस्तुत करू आप सबके लिए ..

खैर जैसे इश्वर की इच्छा जब बात उन्ही की हो रही है तो उन्ही के अनुसार हो …

भला अंग्रेजी  भाषा में क्या मिठास होगी, जो रस हिंदी में आता है वह अंग्रेजी में कभी आ ही नहीं सकता।

बीच में रुकने के लिए माफ़ कर दिजिये, पर एक बात फिर मन में उठ रही है ..सोचती हूँ पुछ ही डालू ..

 

वह यह की ..

” आपके विचार किस भाषा में सबसे ज्यादा सरलता एवं मौलिक रूप में प्रकट होते हैं , कोई एक नया विचार या ख्याल  क्या इसी भाषा में उत्पन्न होता है ” ?

हाँ की ना  ?  आप सहमत हो ही सकते है इस बात पर मेरे साथ और जो ना हो वह अपना तर्क ज़रूर रख सकते हैं इस विषय में की हिंदी अंग्रेजी पर भारी है

वापस आते हैं अपनी बात पर ..

यह  post  लिखने का मुख्य कारण है की मैं जिस शक्ति और भक्ति में विश्वास रखती हूँ, जिसकी   अनुभूति मैंने की है उस अनुभव का कुछ  भाग आप भी महसूस करे या अपने अनुभवों को भी इनसे जोड़ने और खोजने का प्रयास करे

मेरी नानी का हाँ मेरी नानी का बहुत बड़ा योगदान है इस भक्ति की शक्ति को मज़बूत करने में , कुछ नानी और कुछ मेरा इतिहास जो बहुत ही नाटकीय और बेहद गंभीर रहा है मेरे और मेरे परिजनों के लिए , उस सत्य से भी आपको मुखातिब करूंगी कभी

बचपन से ही मुझे ईश्वरीय शक्ति में बहुत रूचि थी, “रूचि” इसलिए क्यूंकि उस समय कोई नियम का पालन या किसी सधे हुए मार्ग पर नहीं चलना पड़ता था जबकि बड़े होने पर अनुशाशन हर ज़िन्दगी के पहलु में अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

बिना अनुशासन के तो भगवन ने किसी को दर्शन भी नहीं दिए, घोर जप, तप, आग्रह और निग्रह  से इश्वर प्रसन्न हुए है और होते आये है

धर्म को अनुभव करने से पहले उसकी स्वीकृती, फिर  उसकी अनुभूति से फिर उसके संस्करण से और बाद में अनुग्रहण से होता है

इस बात में तो सभी यकीन करते होंगे, की वक़्त से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता पर यह मैंने जाना है की आप वक़्त और किस्मत पर भी विजयी हो सकते हैं अगर आप इश्वर की असीम शक्ति में विश्वास रखते है । इसके उदाहरण स्वरुप मैं एक कथा बताना चाहूंगी

भगवन शिव यानि महादेव को तो सब जानते हैं वह परमपिता परमेश्वर, जगत के स्वामी और सब देवो के देव है ..

कथा से पहले आपको यह बता दूँ की यह वह समय हैं

 

जब महादेव की अर्धांगिनी देवी पारवती, बाल्यवस्था में अपनी माता मैना देवी  के साथ मार्कंडय ऋषि के आश्रम में रहती थी और पारवती देवी एक दिन असुरो के कारन संकट में पढ़ गयी और महादेव ने उनके प्राणों की रक्षा की

मैना ने जब अपनी पुत्रि की जान पर आई आपदा के बारे में सुना तो वह अत्यंत दुखी और भयभीत हो गयी पर ऋषि मार्कंडय ने उन्हें जब बताया की कैसे महादेव ने देवी पारवती की रक्षा की, पर वह तब भी संतोष न कर सकी .

मैना देवी विष्णु भगवान की उपासक थी, जिस वजह से शिव की महिमा में ज़रा भी विश्वास नहीं रखती थी।

शिव जी ठहरे वैरागी और शमशान में रहने वाले तो भला वह कैसे उनकी पूजा करे

तत्पश्चात ऋषि मार्कंडय ने मैना को शिव भगवान की महिमा के बारे में बताने का विचार किया और उनको यह कथा विस्तार से बताई –

जब मार्कंडय ऋषि केवल 11  वर्ष के थे, तब उनके  पिता ऋषि मृकनडू को गुरुकूल आश्रम के  गुरु से यह ज्ञात हुआ की मार्कंडय की सारी  शिक्षा- दीक्षा पूर्ण हो चुकी है और अब वह उन्हें अपने साथ ले जा सकते है , क्यूंकि उन्होंने सारा ज्ञान इतने कम समय में ही अर्जित कर लिया और अब उनको और ज्ञान देने के लिए कुछ शेष नहीं है

यह जानने के बाद भी की उनका पुत्र मार्कंडय इतना बुद्धिमान और ज्ञानवान है, उनके  माता पिता खुश नहीं हुए । मार्कंडय ने जब पूछा की उनके दुःख का क्या कारन है, तब उनके पिता ने उनके जन्म की कहानी बताई की पुत्र की प्राप्ति हेतु  उन्होंने और उनकी माता ने कई वर्षो तक कठिन और घोर तप किया, तब  भगवान् महादेव प्रसन्न होकर प्रकट हुए, पर उनको इस बात से अवगत कराया की उनके भाग में संतान सुख नहीं है

परन्तु उनके तप से प्रसन्न होकर उनको पुत्र का वरदान दिया और उनसे पूछा की वह कैसा पुत्र चाहते है-

 

> जो बुद्धिवान ना हो पर उसकी आयु बहुत ज्यादा हो

या

> ऐसा पुत्र जो बहुत बुद्धिमान हो परन्तु जिसकी आयु बहुत कम हो

 

मृकंदु और उनकी पत्नी ने कम आयु वाला पर बुद्धिमान पुत्र, का वरदान माँगा,  महादेव ने उनको बताया की यह पुत्र केवल 12 वर्ष तक ही जीवित रहेगा वह फिर विचार कर ले, पर उन्होंने वही माँगा और महादेव उनको वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गये।

ऋषि मृकंदु ने यह सब अपने पुत्र को बताया, जिसको सुनने के बाद वह बहुत दुःखी हुआ, यह सोचकर की वह अपने माता -पिता की सेवा नहीं कर सकेगा, परन्तु बालक मार्कंडय ने उसी समय यह निर्णय किया की वह अपनी  मृत्यू पर विजय प्राप्त करेंगे और भगवान शिव की पूजा से यह हासिल करेंगे ।

बालक मार्कंडय 11 वर्षः की आयु में वन को चले गए, लगभग 1 वर्ष के कठिन तप के दौरान उन्होंने एक नए मंत्र की रचना की जो म्रत्यु पर विजय प्राप्त कर सके

वह है-

” ॐ  त्रियम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं , उर्वारुकमिव बन्धनात  मृत्योर्मोक्षिय मामृतात् ॐ”

जब वह 12 वर्ष के हुए तब यमराज उनके सामने, प्राण हरण के लिए प्रकट हो गये .

बालक मार्कंडय ने यमराज को बहुत समझया और याचना की, कि वह उनके प्राण बक्श दे, परन्तु यमराज ने एक ना सुनी और और वह यमपाश के साथ उनके पीछे भागे बालक मार्कंडय भागते- भागते वन में एक शिवलिंग तक पहुचे जिसे देख कर वह उनसे लिपट गए और भगवान् शिव का मंत्र बोलने लगे जिसकी रचना उन्होंने स्वयं की थी.

यमराज ने बालक मार्कंडय की तरफ फिर से अपना यमपाश फेका परन्तु शिवजी तभी प्रकट हुए और उनका यमपाश अपने त्रिशूल से काट दिया .

बालक मार्कंडय शिवजी के चरणों में याचना करने लगे की वह उनको प्राणों का वरदान दे, परन्तु महादेव ने उनको कहा की उन्होंने ही यह वरदान उनके माता – पिता  को दिया था, इस पर बालक मार्कंडय कहते है की यह वरदान तो उनके माता पिता के लिए था नाकि उनके लिए ..

यह सुनकर महादेव बालक मार्कंडय से अत्यंत प्रसन्न होते है और उनको जीवन का वरदान देते है और यमराज को आदेश देते है की वह इस बालक के प्राण ना ले।

कथा से क्या इस बात पर पुन: विचार करने का मन होता है की भक्ति में बहुत शक्ति है , ऐसा क्या नहीं है जो इस संसार में इश्वर की भक्ति करने से प्राप्त ना किया जा सके।

मुझे इस कथा को जानने के पश्चात भगवान् की भक्ति और शक्ति की महिमा में अटूट विश्वास हुआ , इसके अलावा ऐसी कई महत्वपूर्ण कहानियां और घटनाएं है जो लोगो ने अपने जीवन में स्वयं अनुभव किया है  जिनके कारन वश उनका इश्वर मे विश्वास बड़ा है